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अभिमानी को नहीं मिलता ज्ञान - शङ्कराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती

 ज्ञान एक प्रवाह है जो गुरु के मुख से सत्शिष्य के हृदय में प्रवाहित होता है। विनम्र बनने पर ज्ञान सहज में उपलब्ध हो जाता है। जो अभिमानी होता है उसे ज्ञान नहीं मिल पाता है। उक्त उद्गार परमाराध्य परमधर्माधीश उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती '१००८' ने चातुर्मास्य प्रवचन के अन्तर्गत कही। उन्होंने कहा कि सुख और दुःख दोनों आपस में एक-दूसरे से मिले हुए हैं। इसी कारण एक के आने पर दूसरा नहीं रहता और दूसरे के आने पर पहला नहीं रहता। दोनों की जोडी बनी हुई है। यदि हमें आनन्द प्राप्त करना है तो इन दोनों से ऊपर उठना होगा। Official YouTube C hannel Swami Avimukteshwarananda Saraswati  Ashram Shri swami avimukteshwarananda saraswati maharaj images Swami Avimukteshwarananda Saraswati 1008 sewalay Swami Avimukteshwarananda Saraswati appointment

जिज्ञासु के लिए सद्गुरु ही गति - १००८ ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामिश्रीःअविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती '

 मन में जब प्रश्न उपस्थित हों तो कहा गया है कि क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाना चाहिए। पुस्तक से पढकर आत्मान्वेषण करने को भी हमारे धर्मशास्त्रों में निषेध बताया गया है। उक्त उद्गार परमाराध्य परमधर्माधीश उत्तराम्नाय  ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती '१००८ ' ने चातुर्मास्य प्रवचन के अवसर पर कही। उन्होंने कहा कि  गुरु का बहुत अधिक माहात्म्य होता है। पुस्तक से पढने पर जो बातें समझ नहीं आती वह गुरुमुख से सुनकर सहज ही समझ आ जाती हैं। जिस प्रकार समुद्र का जल यदि कोई सीधे पीना चाहे तो खारा लगता है पर वही जल जब समुद्र से सोखकर बादल बरसाता है तो अमृत जैसा हो जाता है। आगे कहा कि अध्यापन के क्षेत्र में भी आधुनिक तकनीक आज इतनी अधिक विकसित हो गयी है पर फिर भी कोलेज और स्कूलों में आज भी पढाने वाले  नियुक्त किए जाते हैं।  पूज्य शङ्कराचार्य जी के प्रवचन के पूर्व  Swami Avimukteshwarananda Saraswati Maharaj Official Website Swami Avimukteshwarananda Saraswati Maharaj swami avimukteshwaranand saraswati अविमुक्तेश्वरानंद सरस...

सनातनी वर्णव्यवस्था है सर्वोत्तम व्यवस्था - परमाराध्य जगद्गुरु शङ्कराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती १००८

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 सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था एक बडे परिवार की व्यवस्था जैसी सर्वोत्तम है। जिस प्रकार परिवार के बडा होने पर सब लोग घर के कार्य आपस में बाॅटकर मिल-जुलकर करते हैं वैसे ही चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ने भी सामाजिक व्यवस्था बनाने हेतु अपने-अपने कार्यों का विभाजन कर लिया है।  उक्त उद्गार परमाराध्य परमधर्माधीश उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती '1008' ने चातुर्मास्य प्रवचन के अवसर पर कही। उन्होंने कहा कि वेदों ने चारों वर्णों की महिमा गाई है। सभी वर्ण उस विराट् पुरुष के शरीर से उत्पन्न हुए हैं इसलिए न कोई छोटा है और न ही कोई बडा। जिस समय जिसका कार्य होता है उस समय उसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। आगे कहा कि बहुत दिनों से लोगों के मन में ऊँच और नीच की बात भर दी गयी है पर सनातन धर्म में सबको महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। चारों वर्ण मिलकर सनातन धर्म की मूर्ति का एक आकार बनते हैं। जिस प्रकार यदि भगवान् की मूर्ति खण्डित हो जाए तो वह पूजा के योग्य नहीं रह जाती ठीक उसी प्रकार यदि चारों वर्ण एक न रहें तो सनातन धर्म क...